भारत दुनिया में शहद के बड़े उत्पादकों में से एक है। बड़ा उत्पादक होने के बावजूद भी ये देश अपनी ही देशी मधुमक्खी प्रजाति के लिए खतरे का सामना कर रहा है। भारत के अधिकतर मधुमक्खी पालन छेत्रों में आज विदेशी यूरोपीय प्रजाति हावी है, जो साफ़ साफ़ देशी मधुमक्खियों के पालन और इकोलॉजी को प्रभावित करती है।
स्थानीय मधुमक्खियों को अत्यधिक प्रभावी परागणकर्ता यानि पोलीनेटर माना जाता है। यही नहीं, स्थानीय प्रजाति उच्च ऊंचाई पर मौजूद कठिन जलवायु, जैविक और कृषि स्थितियों में ढल कर पहाड़ी क्षेत्र में उगने वाली जंगली फसलों के परागण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। जबकि प्रवासी मधुमक्खियों के साथ ऐसा नही है, वो अधिक तापमान और बारिश नही झेल पाती हैं।यही नहीं प्रवासी मधुमक्खियों को बहुत अधिक रखरखाव की आवश्यकता होती है, और यह केवल भारत के कुछ क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। ऐसी मधुमक्खियां यूँ तो बहुत अधिक मात्रा में शहद बनाती है और इस कारण 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा शुरू की गई ” मीठी क्रांति” को गति भी मिली है परंतु अत्यधिक रखरखाव के कारण इन मधुमखियों को साल भर भारत के अलग अलग बागानों में ले जाया जाता है। यही कारण है कि भारत के 86% छोटे किसान इन्हें पालने की सोच तो लेते है पर ये प्रवासी मधुमखियां उन की पहुँच से काफ़ी दूर है।
स्थानीय मधुमक्खियों की केवल एक यही परेशानी नहीं हैं। एक और जहाँ विदेशी मधुमक्खियां उनकी जगह ले रही है वही कई कीटनाशक भी उनकी जनसंख्या के लिए हानिकारक साबित हो रहे है।
तो सवाल ये उठता है कि कैसे स्थानीय मधुमखियों के संरक्षण के साथ साथ शहद उत्पाद में भी वृद्धि हो?
एक और जहाँ प्रवासी मधुमखियों के पालन में लगभग 6000 तक का खर्चा है, वहीं एक बेहतर प्रशिक्षण के बाद स्थानीय मधुमक्खियों पर ये खर्च सिर्फ 2000 तक लगता है।
हमें चाहिए कि मधुमक्खी पालन से जुड़ी ऐसी नई प्रशिक्षण योजनाएं लाई जाए और लोगो में जागरूकता फैलाई जाये।
अब जरूरी है कि स्थानीय और प्रवासी मधुमखियों के इस्तेमाल में एक सामंजस्य बैठाया जाये। स्थानीय मधुमक्खियों का पुनरुत्पादन कठिन है, इसलिए उनके संरक्षण पर ध्यान केंद्रित की जरूरत है वरना कहीं ऐसा ना हो कि कुछ सालों में ये स्थानीय मधुमक्खियां अपने ही स्थान से लापता हो जाए।