पहाड़ों को पहाड़ों से भी ज्यादा सुन्दर बनाते है, जो बस बहते चले जाते है, यहाँ के “धारे”। हिमालय में मन बांध लेने वाले दृश्य और इस दृश्य पर चार चाँद लगाते हैं, यहाँ के “धारे”।
ये धारे उत्तराखंड की आबादी के लिए स्वच्छ जल का स्त्रोत है। या यूँ कहें कि ये धारे हिमालय की नब्ज़ है, जिसका जल इस धरती को सींचता है। यही नहीं, ये धारे उत्तराखंड की गोद से निकलने वाली कई नदियों की पूर्णता का राज़ है। हिमालय की गोद से निकलने वाली भारत की सब से लम्बी नदी गंगा की प्यास भी इन धारों से मिटती है, यानि कि गंगा नदी का लगभग 70% पानी इन धारों के कारण है।
धारे हिमालय की रग रग में इतने बस चुके है कि हिमालयी राज्यों की सभ्यता और संस्कृति तक इन धारों के किनारे चलती है।
इस ही बात से इन धारों की महत्वता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
पर, समय के पहिए को पीछे घुमाये तो आपको शायद याद हो कि एक वक्त हुआ करता था, जब लगभग कुछ ही दूरी पर एक नया धारा बहता हुआ नज़र आ जाता था और आज का एक वक्त है, जिसमें ये धारे विलुप्त हो चुके है। यूँ तो हिमालय लगभग भारत में 2 मिलियन से ज्यादा धारों का घर है, पर पिछले कुछ दशकों में ये आंकड़े काफी तेज़ी से गिरे हैं, जिसके अनुसार 50% तक हिमालय के धारे अपना अस्तित्व खो चुके हैं। अल्मोड़ा जिले के आंकड़े बताते है कि पिछले कुछ दशकों में यहां के कुल 360 गिने गए धारों और झरनों में से अब केवल 60 ही शेष है।विशेषज्ञों के अनुमान के मुताबिक उत्तराखंड में करीब 12000 झरने और धारे पूरी तरह से सूख चुके हैं।
पिछले साल मार्च में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने उत्तराखंड सरकार और राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण से एक याचिका पर जवाब मांगा था, जिसमें ये कहा गया था कि राज्य में प्राकृतिक गर्म झरने सूखते जा रहे हैं। इसने वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के एक अध्ययन का हवाला देते हुए कथित तौर पर दिखाया गया था कि प्राकृतिक झरने विलुप्त हो रहे है।
नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया, जिसे नीति आयोग भी कहा जाता है, ने “जल सुरक्षा के लिए हिमालय के झरनों की सूची और पुनरुद्धार” पर एक समूह का गठन किया था। दिसंबर 2017 में इसकी रिपोर्ट ने बताया कि हिमालयी क्षेत्र में 30 लाख झरने हैं, जिसका सीधा मतलब यह है कि उत्तराखंड में पेयजल आपूर्ति का महत्वपूर्ण हिस्सा इन पर निर्भर है। इस रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR) में लगभग आधे झरने और धारे सूख रहे थे, जिन्हें बचने की जरूरत आज सब से ज्यादा है। क्योंकि अगर ऐसा नही हो सका तो यह हिमालय में जल सुरक्षा और स्थानीय लोगों को पीने के लिए पानी की उपलब्धता और पहाड़ियों पर छोटे पैमाने पर खेती के लिए एक बड़ा प्रभाव पैदा करेगा।
पर ये धारे विलुप्त होने की कगार पर क्यों है? वर्तमान समय में जब हर तरफ प्रगति का दौर चल रहा है तो केवल प्रकृति ही विनाश की तरफ क्यों जा रही है?
हिमालय की गोद से इन धारों के मिटने का एक मुख्य कारण भूमि उपयोग, विकास गतिविधि, और मानव द्वारा किया जा रहा शोषण है। मानव आज विकास की दौड़ में इतना अँधा हो गया है कि जिस डाल पर बैठा है, उसे ही काटे जा रहा है। ये नुक्सान जब तक समझ आए तब तक कहीं देर ना हो जाये। आज मानव द्वारा किये जा रहे प्रकृति के शोषण व नासमझी पर “गिर्दा” की ये पंक्तियां याद आती हैं:-
“उफ!! तुम्हारी ये खुदगर्जी,
चलेगी कब तक ये मनमर्जी,
जिस दिन डोलगी ये धरती,
सर से निकलेगी सब मस्ती।।”